विकास की अध्ययन विधियाँ(प्रणालियाँ)(Methods of study development)

 विकास की अध्ययन विधियाँ (प्रणालियाँ) और बाल-विकास के अध्ययन का महत्व 

विकास की अध्ययन विधियाँ और बाल-विकास के अध्ययन का महत्व
CHILD DEVELOPMENT

विकास की अध्ययन विधियाँ(प्रणालियाँ)(Methods of study development):-

किसी भी विज्ञान की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए कुछ विधियाँ तथा प्रविधियों(Techniques) का सहारा लेना पड़ता है। बाल विकास का अध्ययन करने के लिए अनेक methods है, लेकिन उनमें से कुछ प्रमुख methods इस प्रकार है―

  1. जीवन वृतान्त विधि (Biographical method)
  2. आत्मनिष्ठ आकलन विधि (Method of subjective appraisal)
  3. नियन्त्रित निरीक्षण विधि (Controlled observation)
  4. मनोभाौतिकी विधि (Psycho-physical method)
  5. प्रश्नावली विधि (Questionnaire)
  6. चिकित्सात्मक विधि (The Clinical Method)
  7. प्रयोगात्मक विधि (Experimental method)
  8. सांख्यिकीय विधि (Statistical method)

  1. जीवन वृतान्त विधि (Biographical method):- 
 इस विधि में बालकों के जीवन-क्रम(Life-sequence) का लेखा-जोखा सतर्कतापूर्वक (Vigilantly) एकत्र किया जाता है। बालक के जन्म के समय जो-जो घटनाएँ या क्रियाएँ होती है उनका अंकन किया जाता है। बालक की और भी अन्य क्रियाओं का अध्ययन भी इसी विधि के अन्तर्गत किया जाता है जैसे कि―सहज क्रिया(Reflex-actions), ज्ञानात्मक(Sensory) और क्रियात्मक(Motor)। बालक के विषय में और भी सूचनाएँ माता-पिता, अभिभावक तथा सम्बन्धियों से प्राप्त की जाती हैं।
                       टाइडमैन ने सर्वप्रथम इस विधि का प्रयोग वर्ष 1787 में किया था। इसके बाद वर्ष 1885 में प्रेयर ने जर्मनी में इस विधि का प्रयोग किया। इस विधि का पूर्ण उल्लेख प्रेयर ने अपनी पुस्तक 'The mind of the child' में किया। इस विधि से बालक के विकास का क्रमबद्ध विवरण(Sort Description) प्राप्त होता है। यह विधि सरल और सुगम है।  

2. आत्मनिष्ठ आकलन विधि (Method of subjective appraisal):-

बालकों के व्यक्तित्व(personality) का अध्ययन करने के लिए इस विधि का use किया जाता है। इसके अंतर्गत बालक के अनौपचारिक व्यवहार(Informal behaviour) की study की जाती है। यह विधि भी बालकों के विषय में अनेक बातें जानने के लिए है। इस विधि से बालकों के बारे में जो बातें पता चलती है, इन बातों में अनेक बातें और तथ्य उपयोगी भी होती हैं। बालक जो कुछ भी कहता तथा करता है, उसमें उसका व्यक्तित्व निहित होता है। जो बालक साहित्य पढ़ने में रुचि लेते हैं, में साहित्यकार बनने की संभावनाएं विकसित हो जाती हैं।

               यह विधि अत्यन्त सरल है। इस विधि से प्राप्त सूचनायें अन्य विधियों से प्राप्त सूचनाओं के साथ तुलना करने में उपयोगी सिद्ध हुई हैं। 

3. नियन्त्रित निरीक्षण विधि (Controlled observation):-

यह विधि बालक के निजी व्यवहार का आकलन करने में मदद करती है। इसमें निरीक्षणकर्त्ता(Inspector) चैकलिस्ट या सिम्पटन शीट के द्वारा बालक के व्यवहार का आकलन करता है। इस विधि की अनेक प्रविधियों(techniques) में से प्रमुख इस प्रकार हैं -

  • परिस्थिति विश्लेषण (Situation)
  • सामुदायिक सर्वेक्षण (Community Survey)
  • समय न्यादर्श (Time Sampling)
  • चैक-लिस्ट (Checklist)

  • परिस्थिति विश्लेषण (Situation):-  

विभिन्न situations में घटने वाले बालक के व्यवहार का अध्ययन इस विधि द्वारा किया जाता है। माता-पिता, शिक्षक, साथी, समुदाय आदि सभी पक्षों के साथ बालक के व्यवहार में क्यों भिन्नता पाई जाती है, इस बात की जानकारी उन situations का analysis करने से होती है जिनमे निर्दिष्ट व्यवहार(Specified behaviour) किया गया है।

  • सामुदायिक सर्वेक्षण (Community Survey):- 
  इस विधि द्वारा किसी समुदाय में रहने वाले बालकों का अध्ययन किया जाता है। इससे किसी विशेष समुदाय के बालकों में विशेष व्यवहार क्यों उत्पन्न होता है? यह अन्य समुदायों के बालकों के व्यवहार से क्यों भिन्न होता है, की  जानकारी प्राप्त होती है।

  • समय न्यादर्श (Time Sampling):- 

इस विधि द्वारा किसी निर्धारित समय में बालक के विकास तथा व्यवहार का निरीक्षण(Observation) किया जाता है। जैसे कि हम जानते है कि बालक जैसे-जैसे बड़ा होता हैं,साथ-साथ विकास भी होता रहता है। इसलिए 1 वर्ष में अनेक बालकों के शारीरिक विकास(physical development) में विभिन्नता (Variation) तथा उसके कारकों की जानकारी इस विधि से हो जाती है।

  • चैक-लिस्ट(Checklist):- 

बालक का जैसे-जैसे विकास होता है तथा बालक जो विभिन्न प्रकार के व्यवहार करता है तो यह उन बालकों के विभिन्न प्रकार के विकास तथा व्यवहारों की एक सूची होती है। सूची में दिए गए पदों के अनुसार जांच करके ही व्यवहार तथा विकास का निरीक्षण किया जाता है।                
                     उपर्युक्त चारों प्रविधियों की सीमाएं इस प्रकार हैं― 

  • इनका प्रयोग प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकते हैं।
  • इन विधियों द्वारा एक-साथ बहुत-से बालकों के अध्ययन नहीं किया जा सकता हैं।

4. मनोभौतिकी विधि(Psycho-physical method):-   

इस विधि द्वारा मन तथा शरीर के संबंधों के आधार पर व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। शरीर के विकास  के साथ-साथ शरीर के अन्य मानसिक शक्तियों का विकास भी होता है। इसी अध्ययन पर बिनेट ने बुद्धि लब्धि की कल्पना की तथा मानसिक आयु का विचार प्रतिस्थापित (Replaced) किया। 

            किसी भी उद्दीपन(Stimulus) से शरीर तथा व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं, यह जानना ही इस विधि के उद्देश्य है। इसलिए 

   डी० के० कैडलैंड ने कहा है, " मनोभौतिकी, उत्तेजनाओं के प्रति हमारी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं के मध्य सम्बन्ध स्थापित करती है।"

(D. K. Cadland has stated, "Psychophysics             establishes a relationship between our psychological responses to stimuli.")

फैचनर ने इसे और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है, 

"मनोभौतिकी मन तथा शरीर के मध्य निर्भरता के कार्यात्मक सम्बधों का विज्ञान है।"

(Fachner made it even more explicit by stating, "Psychophysics is the science of the functional relations of dependence between mind and body.")

सीमा विधि, मध्यमान अशुद्धि(method of average) सतत् उद्दीपन विधि(stimulus method) आदि का प्रयोग इस विधि द्वारा किया जाता है।

5.प्रश्नावली विधि (Questionnaire):-

इस विधि द्वारा बालकों से अनेक प्रश्न पूछे जाते है और उन प्रश्नों के उत्तर बालकों से प्राप्त किये जाते हैं। उसके उत्तरों के अध्ययन पर बालक के विकास का अध्ययन किया जाता है। 

पाइल्स, स्टोल्स आदि ने भी इस विधि का उपयोग किया। इस विधि की सीमाएँ इस प्रकार हैैंं ―

  • बच्चे प्रश्नों का भाव समझ नहीं पाते है क्योंकि प्रश्नों की भाषा कठिन होती है।
  • जिसके वजह से जान-बूझकर गलत उत्तर आ जाते हैं।
  • माता-पिता पक्षपातपूर्ण उत्तर देते हैं।

6. चिकित्सात्मक विधि(The Clinical Method):-

जी० लेस्टर एण्डरसन ने इस विधि के विषय में कहा है, "यह साधारणतया विशिष्ट अधिगम(Specific learning), व्यक्तित्व या आचरण(personality or behaviour) संबंधी जटिल ग्रंथियों के अध्ययन के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं और उसमें विचाराधीन समस्या के अनुकूल विविध क्लीनिकल कार्य पद्धतियां इस्तेमाल की जाती है। उनका लक्ष्य इस बात की पहचान या मालूम करना होता है कि उनके पात्र की विधि पर आवश्यकताएँ   क्या है ? यह ग्रंथि किस कारण या किन कारणों से पैदा हुई है और पात्र को क्या सहायता दी जानी चाहिए?"

(G. Lester Andersen has stated about this method, "They are commonly used to study complex glands of specific learning, personality or behavior, and use a variety of clinical methods to suit the problem in question. Their goal is to  Identification or knowing what the requirements are on their character's method? For what reason or reasons has this gland originated and what assistance should be given to the character? ")


बालकों में कभी-कभी असामान्य व्यवहार पाया जाता है। यदि इस असामान्य व्यवहार का समय रहते उपचार नहीं किया जाता तो मानसिक विक्षिप्तता (Mental insanity) होने लगती है। इस विधि द्वारा ही ऐसे बालकों का उपचार किया जाता है।

7. प्रयोगात्मक विधि(Experimental Method):- 

इस विधि का उपयोग नियोजित वातावरण (Planned environment) में बालकों के विकास के अध्ययन में किया जाता है।
क्रो एवं क्रो ने इस विधि के विषय में कहा है, "मनोवैैैैज्ञानिक प्रयोग का उद्देश्य किसी निश्चित परिस्थितियों या दशा में मानव व्यवहार से संबंधित किसी विश्वास या विचार या परीक्षण करना है।" 

(Crowe and Crowe have stated about this method, "The purpose of psycho-experimental experiment is to make a belief or idea or test concerning human behavior in certain circumstances or situations.")

इस विधि में एक वर्ग नियंत्रित रहता है और एक प्रयोगात्मक। यह विधि मनोवैज्ञानिक, विश्वसनीय वैध तथा उत्तम परिणाम देने वाली हेै।

8. सांख्यिकीय विधि(Statistical Method):-

 इस विधि से प्राप्त आकड़ों का विश्लेषण करके परिणामों की वैधता तथा विश्वसनीय(Validity and reliable) का पता चलता है।

निष्कर्ष(Conclusion):-    बाल विकास तथा व्यवहार के अध्ययन के लिए किसी एक विधि पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। इसलिए अनेक विधियों का सहारा अध्ययन के लिए जाता है। बाल अध्ययन की सामग्री इन स्त्रोतों से प्राप्त की जाती हैं ―

  • बालक के शाब्दिक-अशाब्दिक(Verbal and non-verbal) वर्तमान व्यवहार से।
  •  बालक द्वारा निर्मित वस्तुओं के अध्ययन से। 
  • घर, विद्यालय, सरकारी अधिकरण(government tribunal), स्वास्थ्य विभाग(Health department), सामाजिक संस्थाओं(Social institutions) से प्राप्त सूचनाओं से। 
  • बालक के अन्तर्दर्शन(Insights) से। 
  • आरम्भिक जीवन की घटनाओं से।
  •  बालक के जीवन को प्रभावित करने वाले घटकों से। 
  • बालक के वातावरण से।

बाल-विकास के अध्ययन का महत्व(Importance of study of child development):- 

बाल-विकास का अध्ययन आज पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि बन गया है। बाल विकास का अध्ययन सम्पूर्ण मानव विकास की इकाई माना जाता है। 
क्रो एवं क्रो ने इसलिए कहा है, "व्यक्ति तथा समाज के कल्याण के क्षेत्र में रुचि रखने वाले मनोवैज्ञानिक, शिक्षक, अभिभावक, सामाजिक कार्यकर्ता बालकों के विकास के अध्ययन को महत्व देने लगे हैं। बालक व्यक्ति का पिता है, बालक के प्रथम छः वर्ष महत्त्वपूर्ण होते हैं, आदि लोकोक्तियों ने बाल-विकास के अध्ययन के महत्त्व को बढ़ाया ही है।"
    बाल-विकास के study ने society के सामने दो पहलू प्रस्तुत किए हैं– 
        1. व्यावहारिक(Practical),
        2. सैद्धान्तिक(Theoretical)।
समाज में प्रत्येक अभिभावक के लिए theoretical and practical, दोनों पक्षों का ज्ञान आवश्यक है। बाल-विकास की प्रक्रिया का कुशल सम्पादन(Efficient editing) इस के knowledge के अभाव में नहीं किया जा सकता। 

            बाल-विकास के अध्ययन से अभिभावकों तथा भावी माताओं को लाभ है―
  • बाल - पोषण का ज्ञान(Knowledge of child nutrition)
  • अभिभावक का ज्ञान (Parental knowledge)
  • बालक का सामान्य व्यवहार(Normal child behavior)
  • बालकों का विश्वास(Confidence of children)   
  • विकास की अवस्थाओं का ज्ञान(knowledge of stages of development)
  • समाजीकरण का ज्ञान (knowledge of socialization)
  • बालक का व्यक्तित्व(personality of child)
  • खेल और बालक (sport and child)
  • स्वास्थ्य(health)
  • शैक्षिक प्रक्रिया(educational process)
  • वैयक्तिक भेदों पर बल(emphasis on individual differences)

  1. बाल - पोषण का ज्ञान (Knowledge of child nutrition):-  

बाल-पोषण का ज्ञान(Knowledge of child nutrition)
Child nutrition

जैसे कि हम जानते है कि बालक के गर्भ में आने से लेकर संसार में प्रथम दर्शन देने तक की सम्पूर्ण process अपने में important होती है। कम अवस्था में यदि बाल-विकास का क्रमिक ज्ञान भावी, माता तथा संरक्षकों को होगा तो वे उसकी उचित देखभाल करेगें और गर्भावस्था के दौरान जो आपदाएं होती है उससे भी गर्भिणी की रक्षा हो सकेगी। मागरेट मीड(Margate Mead) तथा नाईल न्यूटन(Nile Newton) ने अपने लेखों में उन तत्वों का विश्लेषण किया है जो नर-नारी को माता - पिता तथा पारिवारिक ढाँचे में उपयोगी हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में बाल - विकास का पोषण किस प्रकार होता है, उनकी सामाजिक सांस्कृतिक परम्पराएँ क्या हैं, आदि की जानकारी देने में यह शास्त्र उपयोगी सिद्ध हुआ है।

2. अभिभावक का ज्ञान (Parental knowledge):-

अभिभावक का ज्ञान (Parental knowledge)
Parental knowledge

बाल विकास, अन्य सामाजिक विज्ञानों की भांति एक स्वतंत्र ज्ञान बन गया है।  इसका अध्ययन संपूर्ण मानव विकास की इकाई माना जाता है।
क्रो एवं क्रो ने इसलिए कहा है,  "व्यक्ति तथा समाज के कल्याण के क्षेत्र में रुचि रखने वाले मनोवैज्ञानिक, शिक्षक, अभिभावक, सामाजिक कार्यकर्ता बालकों के विकास के अध्ययन को महत्व देने लगे हैं। बालक व्यक्ति का पिता है। बालक के प्रथम छः वर्ष महत्वपूर्ण होते हैं, आदि लोकोक्तियों ने बाल विकास के अध्ययन के महत्व को बढ़ाया ही है।

(Crow and Crow have therefore said, "Psychologists, teachers, parents, social workers interested in the welfare of the individual and society are beginning to value the development of children. The child is the father of the person. The first six years of a child are important, etc. The proverbs have increased the importance of the study of child development. ")

बालक का विकास बहुत important हो गया है जिसका ज्ञान अभिभावक को होना चाहिए। बाल-विकास का अध्ययन आज पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि बन गया है। 

3. बालक का सामान्य व्यवहार(Normal child behavior):-

बालक के विकास का प्रमुख लक्ष्य यह है कि ― बालक का विकास ठीक प्रकार से हो रहा है या नहीं, इस बात की पुष्टि तब होती है जब बालक एक normal behaviour करता हैं और यही बालक के विकास का प्रमुख लक्षण होता है । जैसे कि जानते है कि मानव अधिकारों का अस्तित्व तभी होता है जब बालक का starting से ही मानसिक तथा शारीरिक विकास सामान्य रूप से  होता है। कार्लो वैलेन्टी(Carlo Valenti) ने एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि 2% बालक असामान्य रूप से विकसित होते हैं। बाल विकास का यह अध्ययन अभिभावकों को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि उनका व्यवहार सामान्य हो। जब बालक का व्यवहार एवं विकास सामान्य होगें, तभी वे समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं।

4. बालकों का विश्वास(Confidence of children):-

ऐसा अक्सर देखा जाता है कि कुछ बालक माता-पिता से झूठ बोलते हैं। ऐसी स्थिति में बालक अपने माता-पिता का विश्वास खो बैठता है। बाल विकास का अध्ययन माता-पिता को सामाजिक निर्देशन(Social guidance) देता है और उन परिस्थितियों तथा उपायों की ओर ध्यान दिलाते हैं जिनके द्वारा माता-पिता तथा बालक दोनों में सद्भाव विकसित होता है।

5. विकास की अवस्थाओं का ज्ञान(knowledge of stages of development):-

बाल विकास के अध्ययन से माता-पिता को यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार बालक शैशव से प्रौढ़ावस्था(Infancy and Adulthood) की और विकसित होता है। इन विभिन्न अवस्थाओं में उसमें कौन-कौन से शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, मानसिक नैतिक तथा भाषा संबंधी परिवर्तन आते हैं। जिसके आधार पर माता- पिता अपने-अपने बालक के विकास के प्रति ओर भी सचेत हो जाते है और अपने बालक का विकास सही ढंग से या natural तरीके से हो, इस बात की ओर ध्यान देते है।

6. समाजीकरण का ज्ञान (knowledge of socialization):-

Knowledge of socialization
CHILD SOCIALIZATION


बालक का समाजीकरण उसके जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। इसी के कारण वह समाज के लिए उपयोगी बनता है। बाल विकास का अध्ययन समाजीकरण की विभिन्न प्रक्रियाओं की ओर संकेत करते हैं। परिवार समाज तथा समुदाय की परिस्थितियों को समाजीकरण के लिए और भी उपयोगी बनने में इस अध्ययन का महत्व स्वयं सिद्ध है। सम्पर्क(Contact), अन्त:क्रिया(Interaction), अनुसन्धान, व्यवहार बालक के समाजीकरण की ओर संकेत करते हैं।

7. बालक का व्यक्तित्व(personality of child):-

बालक के व्यक्तित्व का विकास बाल विकास के अध्ययन से सरलता से किया जा सकता है। बालक में अनेक शक्तियां तथा क्षमताएँ पाई जाती है। लेकिन इन शक्ति तथा क्षमता को तभी उचित दिशा में विकसित किया जा सकता है जब बालक की विभिन्न अवस्थाओं जैसे- जब बालक का विकास होता है तो बालक के मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक तथा भाषा संबंधी change आते हैं। जिनका ज्ञान अभिभावकों को होगा। 
                     जो बालक सृजनात्मक गुणों से पूर्ण हैं यानि कि बालक नई-नई creativity करने में Interest लेता है या जिसे interest होता है,  तो उसे सामान्य शिक्षा के द्वारा विकसित नहीं किया जा सकता। अतः बालक की बुद्धि, प्रतिभा आदि को वांछित दिशा देकर उसके व्यक्तित्व के अन्य गुणों को विकसित किया जा सकता है।

8. खेल और बालक (Sport and Child):- 

Sport and child
Sport and child
बालक के जीवन में खेल एक महत्वपूर्ण अंग है। खेलों से ही बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में गति आती है। अभिभावकों को बाल विकास का अध्ययन यह बताता है कि खेलों को बालक के विकास की प्रक्रिया में किस प्रकार रखा जाए कि उसका सन्तुलित विकास हो सके।
घर, विद्यालय तथा समुदाय तीनों स्थानों पर बालक के खेलों में विविधता आ जाती है। इसलिए उसके चयन की ओर भी बाल विकास परामर्श देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि खेल के द्वारा भी बालक का विकास होता है और चाहे वह घर, विद्यालय तथा समुदाय कही भी खेले उसका प्रभाव बालक के विकास पर पड़ता है।

9. स्वास्थ्य(Health):- 

बालक का शारीरिक - मानसिक स्वास्थ्य उसके विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। जिन बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य खराब होता है वे मानसिक रूप से भी अस्वस्थ पाए जाते हैं। जैसा कि 

अरस्तू जी ने कहा है कि, "स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क ही निवास करता है।"

(Aristotle has said that"A healthy brain resides in a healthy body".)

इसलिए ऐसी स्थिति में बालक का निरोग रहना आवश्यक है। बालक का निरोग रहना उसके दिए जाने वाले भोजन तथा उसके पोषण के प्रारूपों पर निर्भर करता है। यह जानकारी बाल विकास के अध्ययन से ही आती है।

10. शैक्षिक प्रक्रिया(Educational process) :- 

Educational process
Child reading

बाल विकास के अध्ययन ने शिशु शिक्षा के मानदंड बदल दिए हैं। माता-पिता भी बालक के शैक्षिक विकास के लिए उतने ही जिम्मेदार है जितना कि शिक्षक। बालक की शिक्षा की प्रक्रिया में रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता आदि का विशेष महत्व हो गया है। पाठ्यक्रम आयु, बुद्धि तथा परिवेश के अनुसार बनने लगे हैं। 
अनेक शिक्षण विधियां है जो बालक को विशेष महत्व देती हैं जैसे डाल्टन विधि, किंडरगार्डन, मोंटेसरी, नई तालीम आदि। शैक्षिक प्रक्रिया में बालकों की क्षमता तथा शक्ति का ध्यान रखकर समय-सारणी(Time - table) बनाई जाती है।

11. वैयक्तिक भेदों पर बल(emphasis on individual differences):-

बालक विकास का आधार व्यक्ति है। यह दो व्यक्तियों के समान व्यवहारों का समान क्रिया - प्रतिक्रियाओं का फल नहीं मानता। एक माता पिता के दो बालकों में समानता नहीं पाई जाती है। एक किसी बात को शीघ्र समझ लेता है और दूसरा नहीं समझ पाता है। ऐसे वैयक्तिक भेदों से युक्त बालकों को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता होती है। बाल विकास का अध्ययन इसलिए मंदबुद्धि, प्रतिभाशाली तथा विकलांग बालकों की शिक्षा पर बल देते हैं।

ब्लेयर के शब्दों में , "आधुनिक अभिभावक को सफलता प्राप्त करने के लिए ऐसा विशेषज्ञ होना चाहिए जो बालकों को समझे कि वह कैसे विकसित होते हैं, सीखते एवं समायोजित होते हैं। कोई अपरिचित या मनोवैज्ञानिक विधियों से अनभिज्ञ व्यक्ति अभिभावक के दायित्व एवं कार्य को पूरा नहीं कर सकता।"

(In Blair's words, "To be successful, the modern parent must be an expert who understands children how they develop, learn and adjust. A person unfamiliar or ignorant of psychological methods cannot fulfill the responsibilities and duties of a guardian. ")



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